पनघट पर जब गोपियाँ नीर भरने चली,
पायल की छुन छुन से सारी धरती खिली,
देख कर उन्हें जाता देख,
कान्हा,
छिपकर ओझल हुआ कुंजन्वन के पुष्प कंदल में।
छलक छलक कर पानी छलका ,
घागरी से थोडा इधर उधर गिरता,
एक कंकरी तब यूँ लागी,
फुट गयी घगरी, गोपियाँ भागी।
बोखलायी सी ,जब वह देखे कान्हा को ,
रूठकर कर पूछे ,
” ऐसा काहे करत हो?”
यूँ हमारे काम में जाने,
कैसे कैसे उलझने देत हो!
देख गोपियों का यह रूप
मंद मुस्कुराए नन्द के पूत ,
मै तो आया इस कारण से,
कर दू हल्का तोरा बोझ ये ,
जिसे उठा कर तुम चली हो,
भूल कर अपनी राह इस वन में,
घगरी फोड़ यहाँ में सोचु,
कितने और पाप के घड़े है तोड़!
मार मार कर कंकरी जाने,
थक गया,
ये कान्हा
धोते
पाप पुण्य से!
Lovely thoughts!
Thank you Arindam for being here and liking this!
Nice poem, however a small correction is required..it shoudle be ‘Gagari’ and not Ghagari.
Thank you Shalini! shall do that! i think I mixed the marathi and hindi word together! ghaagri and gagri!
BEautiful Written 😀
Thank you Parth!