खोज

चंद पल सुकून के खोजता रहा उम्र भर
कभी अपने पैरों के निशाँ पोंछ कर
कभी परिंदे सी उड़ान भर कर
दूर दराज़ जंगलों में
बड़ी बड़ी इमारतों के मंज़िलों पर
खोती गयी मंज़िल अपनी
इस पशोपेश में
भूल गया
झाँकना अपने ही भीतर
ज़िन्दगी के घुमते पहिये संग

Soumya

कैसे कहे चाँद से

कैसे कहे चाँद से

रात की चांदनी उससे  अलग नहीं

चाहे हो दिन या सितारों का मज़मा

रौशनी रूह की

जलती है अंदर ही

 

©Soumya

सुन लो

जो सब कुछ कह दूँ
तो क्या मज़ा जीने में
समझ सको तो सुन लो
बिन कहे
उन बूंदों की सरगम
बहती है जो ख़ामोशी से
हलके से
गुनगुनाते हुए
बरसात के कुछ नग़मे
किस्से तेरी और मेरी कहानी के !

©Soumya

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असर ज़रा नहीं होता

क्या कहे ऐसे  इश्क़ का
असर उसको ज़रा नहीं होता

कर दी  फना हमने अपनी रूह

फिर भी असर  ज़रा नहीं होता

हम  अर्ज़ करते हैं महफ़िलो में

ग़ज़ल उसके   नाम की

कभी सूफियाना कलम से

कभी रूमानी रंग की

पल पल सुलगती साँसों में
ज़िक्र उसका ही रहता है
वह सुनकर भी अनसुना कर दे
तो चाँद हैरान नहीं होता
क्या कहे ऐसे  इश्क़ का
असर उसको ज़रा नहीं होता

उसके  लब्ज़ नहीं कहते जुबां से

आँखों की ज़बानी कह जाते हैं
किस्से दिल और दीदार के
दबा कर चिंगारी
वह राख में आग ढूंढते है
कह दे कोई उसे
जज़्बात फरेबी नहीं होते

क्या कहे ऐसे  इश्क़ का
असर उसको ज़रा नहीं होता

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आओ चांदनी तुम्हे चुरा लूँ

“आओ चांदनी तुम्हे चुरा लूँ
उस चाँद से,
जो पढ़ता है कसीदे रात के अँधेरे में
अपनी मोहब्बत के
गुलाब की उन बंद पंखुरियों से
वह भीनी खुशबु को उड़ा लूँ
हवा के झोंके संग
लहरा कर तुम्हारे नीले दुपट्टे को
नदी तालाब सा बहा लूँ
संग पंछी उड़ जाऊं ऊँचे पर्वत पर
और फ़िज़ा में तुम्हे
घोल दूँ इत्र बन “

कहता है आज बरामदे
पर खड़ा उगता सूरज
भीनी भीनी रौशनी में
मुस्कुराता सूरज

यह दीवारें

क्या लिखा है
दीवारों और दरख्तों पर
कुछ किस्से
कुछ सबूत
उस पुराने इतिहास की
जिसकी न मैं गवाह ना तुम

रंग उतरे इन स्तंभों पर
कई कहानियाँ जागती
इधर उधर
रात के पहर
अनायास ही नज़र पड़ी जब उन पर
सोचने लगा मन
क्या कहना चाहती है
यह दीवारें सालों से खड़ी
जीती जागती ,
मूक दर्शक बनकर !

एक ख्वाब है

एक ख्वाब है :
एक पल का
जब साथ हो आपका
किसी ठंड सी  ठिठुरती रात में
बातों का फलसफा लिए
कुछ हम कहे
कुछ आप कहे
चाँद जब दिखे आसमान में…
एक पल जिये
क्या कभी यह दिन आएगा
क्या  मन एक पल  जी पायेगा
वक्त के तरकश  से
क्या कभी यह तीर निकाल पायेगा?

उड़ान

उस किवाड़ के खुलते ही मानो
जिंदगी बेगैरत  हो गयी
तिजोरी में बंद थी अबतलक
अब खुली किताब बन गयी

अक‍सर चार दीवारों
में कैद इनसान रेह्ते हैं
परिंदों कि माने
तो ख्वाइशें अब बेहिसाब हो गयी

उस नीले आसमान ओ देख्
अब मन बेकाबू हो चला
ऊँची उड़ान कि
अब फितरत हो गयी

एक चाँद था ज़मीन पर

फ़लक पर जो चाँद था ,
देख् रहा था नजरें टिकाये जमीन पर
कभी बादलो के पीछे से, कभी तारों के बीच से
वो पूर्णिमा की  रात थी ,
एक चाँद आसमान पर था
एक नीचे बगीचे में ठिठुर रहा था


भूका, प्यासा तिलमिलाता
बेज़ुबान सा
अनदेखा कर गया , एक काफिला कुछ ही कदमो की  दूरी पर
जग्मगाता , टिम्टिमाता
मानो धरती पर हो रहा हो कोई
तारों का मजुम
सुगंधित फूलों के बीच
स्वादिष्ट पकवान
अर्पण हो रहे थे जो
उस आसमान के चाँद के लिए
एक चाँद था ज़मीन

पर
बस निहारता हुआ

@SoumyaV