रफ्ता रफ्ता यह ख्याल आता है दिल में
इस गुलाबी ठण्ड के ठिठुरते पलों में
सिली सिली यादों का एक मखमली लिहाफ
ओढ़ लूँ
कुछ पल के लिए
कुछ सेंक लूँ, बर्फ से हालत
कुछ ताप लूँ ,अपने जज़्बात
फिर मिलते है ,अगले मौसम में
लिए एक नया तारकशी का लिहाफ
रफ्ता रफ्ता यह ख्याल आता है दिल में
इस गुलाबी ठण्ड के ठिठुरते पलों में
सिली सिली यादों का एक मखमली लिहाफ
ओढ़ लूँ
कुछ पल के लिए
कुछ सेंक लूँ, बर्फ से हालत
कुछ ताप लूँ ,अपने जज़्बात
फिर मिलते है ,अगले मौसम में
लिए एक नया तारकशी का लिहाफ
वह जो बैठे हैं
हथेली पर चंद पलों को लिए
उम्र गुज़र गयी ,तरस गयी आँखें
एक दरस के लिए
शाम सुर्ख फिर भी
फूल यूँ ही मुरझा गए
वक़्त की बेड़ियों ने बाँधी
यह खामोशी कैसी
चलो फिर इंतज़ार करे
यूँ ही चाँद का
सितारों के परे आसमान में
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कैसे कहे चाँद से
रात की चांदनी उससे अलग नहीं
चाहे हो दिन या सितारों का मज़मा
रौशनी रूह की
जलती है अंदर ही
©Soumya
जुबां हमारी ना समझ सका है कोई
आँखों की गहराई
जानने की
फुर्सत किसी को नहीं
वह सोचते रहे
यूँ ही रात भर
पर हम ना
इससे बेखबर
लम्हा दर लम्हा गुज़रे
जो यह पहर
अलफ़ाज़ उनके जाए
मेरे दिल को चिर कर
जो सब कुछ कह दूँ
तो क्या मज़ा जीने में
समझ सको तो सुन लो
बिन कहे
उन बूंदों की सरगम
बहती है जो ख़ामोशी से
हलके से
गुनगुनाते हुए
बरसात के कुछ नग़मे
किस्से तेरी और मेरी कहानी के !
©Soumya
अर्ज़ मेरी उसने ना सुनी,
होगा वो कुछ संगदिल सा,
एक हिज्र की मोहलत माँगी थी,
रूखसत हुई जब
उसके दर से यह ज़िंदगी।
-©Soumya
क्या कहे ऐसे इश्क़ का
असर उसको ज़रा नहीं होता
कर दी फना हमने अपनी रूह
फिर भी असर ज़रा नहीं होता
हम अर्ज़ करते हैं महफ़िलो में
ग़ज़ल उसके नाम की
कभी सूफियाना कलम से
कभी रूमानी रंग की
उसके लब्ज़ नहीं कहते जुबां से
क्या कहे ऐसे इश्क़ का
असर उसको ज़रा नहीं होता
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soumya vilekar
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“आओ चांदनी तुम्हे चुरा लूँ
उस चाँद से,
जो पढ़ता है कसीदे रात के अँधेरे में
अपनी मोहब्बत के
गुलाब की उन बंद पंखुरियों से
वह भीनी खुशबु को उड़ा लूँ
हवा के झोंके संग
लहरा कर तुम्हारे नीले दुपट्टे को
नदी तालाब सा बहा लूँ
संग पंछी उड़ जाऊं ऊँचे पर्वत पर
और फ़िज़ा में तुम्हे
घोल दूँ इत्र बन “
कहता है आज बरामदे
पर खड़ा उगता सूरज
भीनी भीनी रौशनी में
मुस्कुराता सूरज
क्या लिखा है
दीवारों और दरख्तों पर
कुछ किस्से
कुछ सबूत
उस पुराने इतिहास की
जिसकी न मैं गवाह ना तुम
रंग उतरे इन स्तंभों पर
कई कहानियाँ जागती
इधर उधर
रात के पहर
अनायास ही नज़र पड़ी जब उन पर
सोचने लगा मन
क्या कहना चाहती है
यह दीवारें सालों से खड़ी
जीती जागती ,
मूक दर्शक बनकर !