वह सोचते रहे
यूँ ही रात भर
पर हम ना
इससे बेखबर
लम्हा दर लम्हा गुज़रे
जो यह पहर
अलफ़ाज़ उनके जाए
मेरे दिल को चिर कर
वह सोचते रहे
यूँ ही रात भर
पर हम ना
इससे बेखबर
लम्हा दर लम्हा गुज़रे
जो यह पहर
अलफ़ाज़ उनके जाए
मेरे दिल को चिर कर
घने बादलों के साये मँडराते है आज
चहुं ओर छाया है अन्धेरा
ना कोइ रौशनी , ना कोई आस्
फिर भी चला है यह मन अकेला.
ना डरे यह काले साये से
ना छुपा सके इसे कोहरा
अपनी ही लौ से रोशन करे यह दुनिया
चले अपनी डगर…
हो अडिग, फिर भी अकेला …
ना झुकता है यह मन किसी तूफान में
ना टूटे होंसला इसका कभी कही से
एक तिनके को भी अपनी उम्मीद बना ले…
ऐसा है विश्वास बांवरे मन का…
ना थके वो , ना रुके वो
मंज़िल है दूर् , दूर् है सवेरा
चला जाए ऐसे, पथ पर निरंतर
ऐ मन , तू है चिरायु …
संभल कर रहना ऐ नौजवानों
कहीं अंधेरों में ना भटक जाना तुम
दूर् के नज़ारोन से
कहीं भ्रमित ना होना तुम .
होना तुम डटकर खड़े
अपने सच्चाई की लड़ाई में
हाथ थामना कमजोर का
चलना अपनी डगर पर होकर निर्भय …
संभलना इनसान के वेश में बैठे उस जल्लाद से
जिसकी नजरें हैं टिकी तुम्हारे शांत , कोमल मन के अज्ञान- पे
तुमसे ही है इस धरती का भविष्य
तुमसे ही है आस् सभी को
जो तुम भटक जाओ स़फर में
लानत है हमारे संस्कार पर !
खड़े हैं हाथ में लिए यह कमान
थामने तुम्हे गर्व से
संभलना ऐ नौजवानों
इस देश के धरोहर को सम्मान से
किस भंवर में है उलझा यह संसार
चंद रोटी के टुकड़े और मकान
यही तो थी ज़रुरत उसकी
फिर क्यों बैल सा ढ़ो रहा है
यह भोझ इंसान
कांच के महल , अशर्फियों की खनक
मखमली बिछौने , यह चमक धमक
भूल गया वो अब मुस्कुराना
ना याद रहता उसे अब सांस भी लेना,
के गुम हो गयी अब उसकी शख्सियत
रह गया बस बनके एक मूरत
जाग कर भी ना आँखें खोलें
ऐसी हो गयी उसकी फितरत !
वह पृष्ठभूमि ,है हमारी तक़दीर
सियासत की खुनी लड़ाई में
ज़िन्दगी की बन गयी भद्दी तस्वीर
गर बहा ले जाए झेलम की लहरें
इन नफरत के शोलों को
फिर से ऐ! फ़िरदौस
बन जाएगी जन्नत यह तुम्हारी ज़मीन!
उस काव्य की रचना ना हुइ कभी
जिसमें श्रेष्ठ, कभी,
कोई जाति हुई
ना रंगभेद के विचार लिखे कहीं
मनुष्य धर्म सर्वश्रेष्ठ
यही संतों की वाणी रही …
फिर क्यूँ आग से खेले मनुष्य
भूलकर अपने आचारविचार
बना दिया युद्धभूमि का आँगन
जिसपर बसता था इनसान …
बर्बरता का है भूचाल
इन भटकते राहों में
खो गया है एक इंसान।
लिए जन्म चौरासी हज़ार
सीखा न कुछ एक बार
रह गया बनकर एक भक्षक
करता रहा नरसंहार
अंधेर बना कर दुनिया को
उजाड़ दिया सबका संसार
कहीं भूक, बेरोज़गारी से
कभी राह में अत्याचारी से
किसी रात के दबे हज़ारों ज़ख़्म
कुरेद दिए तूने अपने
अश्लीलता की कटारी से।
शर्मसार हुआ है इश्वर
तेरे इस अज्ञान कुकर्म से
जाने कैसी घडी अब आये
यह कलयुग का अन्धकार है!
मुद्दत से अक्सर राह देखती है आँखें
उस सुनहरे भविष्य पर
जब इस धरती के फूल खिलेंगे
चारो ओर अम्बर पर। ।
जब ना होगा कोई भ्रष्टाचार
ना कोई किसी का गला काट
ना रास्तों पर चलने को
डरेंगी बहनें हज़ार।
जब हर एक कोने से गूंजेगी
एक वाणी ,एक ही आवाज़
ना भेद करेंगे लोग यहाँ के
रंग ,जाती व धर्म का घिनौना व्यापार।
ऐसे सुन्दर सजग स्वप्न में
मैं जियूं हज़ारों साल
हर एक जन्म यही हो मेरा
इस धरती पर जहाँ होगा
एक राज्य का स्वर्णिम काल!