अल्फाज की गहराई,
नहीं मोहताज
उम्र के दस्तावेज पर
लब्ज करते है बयान ये
वो दर्द और किस्से
जो उतरे हैं खंजर से
रूह की गहराई में !
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ऐ नौजवानों !
संभल कर रहना ऐ नौजवानों
कहीं अंधेरों में ना भटक जाना तुम
दूर् के नज़ारोन से
कहीं भ्रमित ना होना तुम .
होना तुम डटकर खड़े
अपने सच्चाई की लड़ाई में
हाथ थामना कमजोर का
चलना अपनी डगर पर होकर निर्भय …
संभलना इनसान के वेश में बैठे उस जल्लाद से
जिसकी नजरें हैं टिकी तुम्हारे शांत , कोमल मन के अज्ञान- पे
तुमसे ही है इस धरती का भविष्य
तुमसे ही है आस् सभी को
जो तुम भटक जाओ स़फर में
लानत है हमारे संस्कार पर !
खड़े हैं हाथ में लिए यह कमान
थामने तुम्हे गर्व से
संभलना ऐ नौजवानों
इस देश के धरोहर को सम्मान से
दबी साँस !
उस प्यार की डोरी को जलते देखा है
बंद कमरे में उसे झुलसते देखा है
सिसकियों से भरी रात में देखा है
दो बोल मोहब्बत के लिए तरसते देखा है
घुटन में दबी उस साँस को सुना है
जो जीना चाहे , खुली हवा में ,
उस मन की ख्वाइश
को यूँ ही रौंदते देखा है!
गुनाह
गुनाह मान कर उसने अपना रुख मोड़ लिया
हमने तो बस एक दीदार ही मांगा था!
ना मांगी थी उससे ज़िन्दगी की मोहब्बत
बस चंद लम्हों का साथ ही माँगा था
ना चांदी का महल ना सोने की चमक
हमने तो उसके इस्तकबाल का एक ही पल माँगा था
वह गए यूँ गली से गुज़र के ऐसे
हमने तो बस
उसके लहराते आँचल का झोंका ही माँगा था
गुनाह समझते है वो , सज़ा भी दी हमें
हमने तो अपनी रूह का
जलता हिस्सा माँगा था
जो बसता है उनके जिगर में प्यार से
खंजर तो हमने अपने सीने में उतारा था
मुक्ति
किस मुक्ति की बात करे है तू
जब मन ही नहीं मुक्त संसार से
कहाँ जाए काशी , काबा
जब फँसा हो मन इस मायाजाल में …
मुक्त कभी नहीं ,तू हो सकता
अगर त्याग दिया यह वेश भी
वरना कोइ संत , सूफी ना कहता
जो है, बस यही सही …
घाट घाट का पानी पीया
फिर भी ना जाना यह बात अभी ?
मरने से मुक्ति नहीं मिलती, ऐ राहगीर .
जब तक ना बने ,उन्मुक्त,तू ही !
arzi
naa meine dekha raqeeb, naa jaana apna naseeb
bas is adne se dil ki khwaish , puri kar do ae mujeeb,
ban kar haqeem , le aao woh aisi dawa
ki gum ho jaaye, dil ke saare marz yaheen!
कश्मीर
वह पृष्ठभूमि ,है हमारी तक़दीर
सियासत की खुनी लड़ाई में
ज़िन्दगी की बन गयी भद्दी तस्वीर
गर बहा ले जाए झेलम की लहरें
इन नफरत के शोलों को
फिर से ऐ! फ़िरदौस
बन जाएगी जन्नत यह तुम्हारी ज़मीन!
आग
बुझती नहीं यह आग जो, जलती है बन के अंगार
दिल का चिलमन जैसे गाता हो मोहब्बत के पैग़ाम
बनके धुआँ जब रुख़सत हुए , हम इस महफिल से
रंग उनके सुरमे का बहने लगा क्यूँ ज़ार ज़ार “
कलयुग का अन्धकार
बर्बरता का है भूचाल
इन भटकते राहों में
खो गया है एक इंसान।
लिए जन्म चौरासी हज़ार
सीखा न कुछ एक बार
रह गया बनकर एक भक्षक
करता रहा नरसंहार
अंधेर बना कर दुनिया को
उजाड़ दिया सबका संसार
कहीं भूक, बेरोज़गारी से
कभी राह में अत्याचारी से
किसी रात के दबे हज़ारों ज़ख़्म
कुरेद दिए तूने अपने
अश्लीलता की कटारी से।
तूने अपनाये कपट सहारे से
भूल गया तू इस जीवन का
मक़सद, इस बाजार में ,
बेच दिए तूने सारे बंधन
किया नग्न मानव जात को
शर्मसार हुआ है इश्वर
तेरे इस अज्ञान कुकर्म से
जाने कैसी घडी अब आये
यह कलयुग का अन्धकार है!
मोती
सागर के किनारे , लहरों में पड़े