इंसान

किस भंवर में है उलझा यह संसार
चंद रोटी के टुकड़े और मकान
यही तो थी ज़रुरत उसकी
फिर क्यों बैल सा ढ़ो रहा है
यह भोझ इंसान
कांच के महल , अशर्फियों की खनक
मखमली बिछौने , यह चमक धमक
भूल गया वो अब मुस्कुराना
ना याद रहता उसे अब सांस भी लेना,
के गुम हो गयी अब उसकी शख्सियत
रह गया बस बनके एक मूरत
जाग कर भी ना आँखें खोलें
ऐसी हो गयी उसकी फितरत !

मनुष्य

उस काव्य की  रचना ना हुइ कभी
जिसमें श्रेष्ठ, कभी,
कोई जाति हुई
ना रंगभेद के विचार लिखे कहीं
मनुष्य धर्म सर्वश्रेष्ठ
यही संतों की वाणी रही …

फिर क्यूँ आग से खेले मनुष्य
भूलकर अपने आचारविचार
बना दिया युद्धभूमि का आँगन
जिसपर बसता था इनसान …

कलयुग का अन्धकार

दिशाहीन है आज का समाज

बर्बरता का है भूचाल

इन भटकते राहों में

खो गया है एक इंसान।

लिए जन्म चौरासी हज़ार

सीखा न कुछ एक बार

रह गया बनकर एक भक्षक

करता रहा नरसंहार

अंधेर बना कर दुनिया को
उजाड़ दिया सबका संसार
कहीं भूक, बेरोज़गारी से
कभी राह में अत्याचारी से
किसी रात के दबे हज़ारों ज़ख़्म
कुरेद दिए तूने अपने
अश्लीलता की कटारी से।

नित नए पुराने हथकंडे
तूने अपनाये कपट सहारे से
भूल गया तू इस जीवन का
मक़सद, इस बाजार में ,
बेच दिए तूने सारे बंधन
किया नग्न मानव जात को

शर्मसार हुआ है इश्वर
तेरे इस अज्ञान कुकर्म  से
जाने कैसी घडी अब आये
यह कलयुग का अन्धकार है!

जज्बा

ना रोकना इस जज्बे को जो निकला है अपना रूतबा लिए,
आत्मसम्मान के इस लडाई में रख अपने शीश उठाये हुए,
कभी कभी ही ऐसे जोश में रहता है इंसान यहाँ,
बुझने न देना इस आग को जबतक न हो इन्साफ यहाँ .
 
 
बदल के रखेंगे हम हवाओं की दिशा जो हमसे टकराएगी,
देश के लिए मरना जाने तो क्या अपना हक न मांग पाएंगी ,
जागो सोये हुए लोगों ,घर तुम्हारा भी जल जाएगा ,
अगर न मोड़ा इस आंधी को तो सर्वस्व ही मिट जाएगा।
 
 
आँखें खोलो ,मन से सोचो ,क्या ऐसी दुनिया हम चाहेंगे,
मनुष्य जहाँ बना जानवर ,जंगल राज में खुला हुआ, 
शर्म गृना से झुक  गया सर   … ऐसा काम न अब हो,
वर्ना महाभारत भी यहीं हुआ था  … भूलना मत ये दोस्तों।