किस भंवर में है उलझा यह संसार
चंद रोटी के टुकड़े और मकान
यही तो थी ज़रुरत उसकी
फिर क्यों बैल सा ढ़ो रहा है
यह भोझ इंसान
कांच के महल , अशर्फियों की खनक
मखमली बिछौने , यह चमक धमक
भूल गया वो अब मुस्कुराना
ना याद रहता उसे अब सांस भी लेना,
के गुम हो गयी अब उसकी शख्सियत
रह गया बस बनके एक मूरत
जाग कर भी ना आँखें खोलें
ऐसी हो गयी उसकी फितरत !
mankind
कलयुग का अन्धकार
दिशाहीन है आज का समाज
बर्बरता का है भूचाल
इन भटकते राहों में
खो गया है एक इंसान।
लिए जन्म चौरासी हज़ार
सीखा न कुछ एक बार
रह गया बनकर एक भक्षक
करता रहा नरसंहार
अंधेर बना कर दुनिया को
उजाड़ दिया सबका संसार
कहीं भूक, बेरोज़गारी से
कभी राह में अत्याचारी से
किसी रात के दबे हज़ारों ज़ख़्म
कुरेद दिए तूने अपने
अश्लीलता की कटारी से।
नित नए पुराने हथकंडे
तूने अपनाये कपट सहारे से
भूल गया तू इस जीवन का
मक़सद, इस बाजार में ,
बेच दिए तूने सारे बंधन
किया नग्न मानव जात को
तूने अपनाये कपट सहारे से
भूल गया तू इस जीवन का
मक़सद, इस बाजार में ,
बेच दिए तूने सारे बंधन
किया नग्न मानव जात को
शर्मसार हुआ है इश्वर
तेरे इस अज्ञान कुकर्म से
जाने कैसी घडी अब आये
यह कलयुग का अन्धकार है!