नदिया

अल्हड बन कर घूम रही है, 
ये नदिया वन वन,
कभी पहाड़ों पर  चढ़ती ,
कभी भागती और दौड़ती …
 
गाँव गाँव , जंगल की  छांव  ,
मुडती ,घुमाती ये सर सर नाव,
किधर का रुख  लिए 
जा रही …
ये इठलाती चंचल नदिया!
 
 
हंसती, मुस्कुराती , 
खिलती खिलखिलाती ,
कुछ ही पल में चुप हो जाती,
सरल बन धीरे धीरे बहती!
 
 
समझ  न सके कोई 
इस के तेवर 
क्या संजोये है 
ये भीतर!
कितने मोती जेवर ,
कितने रत्न जडित है 
इसके तन पर!
 
 
फिर भी सरल सौम्य  रूप धारे,
चलती है ये राह निरंतर
प्रकृति के इस आलंकार  पर,
शत शत प्रणाम करूँ   मैं  इश्वर!