हिज्र

अर्ज़ मेरी उसने ना सुनी,
होगा वो कुछ संगदिल सा,
एक हिज्र की मोहलत माँगी थी,
रूखसत हुई जब
उसके दर से यह ज़िंदगी।

-©Soumya

आओ चांदनी तुम्हे चुरा लूँ

“आओ चांदनी तुम्हे चुरा लूँ
उस चाँद से,
जो पढ़ता है कसीदे रात के अँधेरे में
अपनी मोहब्बत के
गुलाब की उन बंद पंखुरियों से
वह भीनी खुशबु को उड़ा लूँ
हवा के झोंके संग
लहरा कर तुम्हारे नीले दुपट्टे को
नदी तालाब सा बहा लूँ
संग पंछी उड़ जाऊं ऊँचे पर्वत पर
और फ़िज़ा में तुम्हे
घोल दूँ इत्र बन “

कहता है आज बरामदे
पर खड़ा उगता सूरज
भीनी भीनी रौशनी में
मुस्कुराता सूरज

यह दीवारें

क्या लिखा है
दीवारों और दरख्तों पर
कुछ किस्से
कुछ सबूत
उस पुराने इतिहास की
जिसकी न मैं गवाह ना तुम

रंग उतरे इन स्तंभों पर
कई कहानियाँ जागती
इधर उधर
रात के पहर
अनायास ही नज़र पड़ी जब उन पर
सोचने लगा मन
क्या कहना चाहती है
यह दीवारें सालों से खड़ी
जीती जागती ,
मूक दर्शक बनकर !

मौसम की इस अदला बदली में

यूँ तो: हमने कभी  सोचा  नहीं
कि इस क़दर आप बसते हैं ज़हन में
पल  भर की खामोशी भी ना अब
सहती इस मौसम में…

मौसम की इस अदला बदली में
कई रंग फिज़ा ने  बदल दिए
कुछ पुराने पत्तों से झड़ गए
कुछ नए फूलों की  खुश्बू से खिल गए…

देखे अब क्या है
इस मौसम की ख्वाइश
कोई
मुस्कुराहट या फिर कोई नई नुमाइश
जिंदगी के मौसम कितने अजीब
कभी मौसम-ए – हिज्र
कभी मौसम – ए- दीद !

एक चाँद था ज़मीन पर

फ़लक पर जो चाँद था ,
देख् रहा था नजरें टिकाये जमीन पर
कभी बादलो के पीछे से, कभी तारों के बीच से
वो पूर्णिमा की  रात थी ,
एक चाँद आसमान पर था
एक नीचे बगीचे में ठिठुर रहा था


भूका, प्यासा तिलमिलाता
बेज़ुबान सा
अनदेखा कर गया , एक काफिला कुछ ही कदमो की  दूरी पर
जग्मगाता , टिम्टिमाता
मानो धरती पर हो रहा हो कोई
तारों का मजुम
सुगंधित फूलों के बीच
स्वादिष्ट पकवान
अर्पण हो रहे थे जो
उस आसमान के चाँद के लिए
एक चाँद था ज़मीन

पर
बस निहारता हुआ

@SoumyaV

दबी साँस !

उस प्यार की डोरी को जलते देखा है
बंद कमरे में उसे झुलसते देखा है
सिसकियों से भरी रात में देखा है
दो बोल मोहब्बत के लिए तरसते देखा है
घुटन में दबी उस साँस को सुना है
जो जीना चाहे , खुली हवा में ,
उस मन की ख्वाइश
को यूँ ही रौंदते देखा है!

arzi

naa meine dekha raqeeb, naa jaana apna naseeb
bas is adne se dil ki khwaish , puri kar do ae mujeeb,
ban kar haqeem , le aao woh aisi dawa
ki gum ho jaaye, dil ke saare marz yaheen!

आग

बुझती नहीं यह आग जो, जलती है बन के अंगार
दिल का चिलमन जैसे गाता हो मोहब्बत के पैग़ाम
बनके धुआँ जब रुख़सत हुए , हम इस महफिल से
रंग उनके सुरमे का बहने लगा क्यूँ ज़ार ज़ार “