रफ्ता रफ्ता यह ख्याल आता है दिल में
इस गुलाबी ठण्ड के ठिठुरते पलों में
सिली सिली यादों का एक मखमली लिहाफ
ओढ़ लूँ
कुछ पल के लिए
कुछ सेंक लूँ, बर्फ से हालत
कुछ ताप लूँ ,अपने जज़्बात
फिर मिलते है ,अगले मौसम में
लिए एक नया तारकशी का लिहाफ
रफ्ता रफ्ता यह ख्याल आता है दिल में
इस गुलाबी ठण्ड के ठिठुरते पलों में
सिली सिली यादों का एक मखमली लिहाफ
ओढ़ लूँ
कुछ पल के लिए
कुछ सेंक लूँ, बर्फ से हालत
कुछ ताप लूँ ,अपने जज़्बात
फिर मिलते है ,अगले मौसम में
लिए एक नया तारकशी का लिहाफ
वह जो बैठे हैं
हथेली पर चंद पलों को लिए
उम्र गुज़र गयी ,तरस गयी आँखें
एक दरस के लिए
शाम सुर्ख फिर भी
फूल यूँ ही मुरझा गए
वक़्त की बेड़ियों ने बाँधी
यह खामोशी कैसी
चलो फिर इंतज़ार करे
यूँ ही चाँद का
सितारों के परे आसमान में
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अर्ज़ मेरी उसने ना सुनी,
होगा वो कुछ संगदिल सा,
एक हिज्र की मोहलत माँगी थी,
रूखसत हुई जब
उसके दर से यह ज़िंदगी।
-©Soumya
क्या कहे ऐसे इश्क़ का
असर उसको ज़रा नहीं होता
कर दी फना हमने अपनी रूह
फिर भी असर ज़रा नहीं होता
हम अर्ज़ करते हैं महफ़िलो में
ग़ज़ल उसके नाम की
कभी सूफियाना कलम से
कभी रूमानी रंग की
उसके लब्ज़ नहीं कहते जुबां से
क्या कहे ऐसे इश्क़ का
असर उसको ज़रा नहीं होता
soumya vilekar
about.me/soumya.vilekar
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क्या लिखा है
दीवारों और दरख्तों पर
कुछ किस्से
कुछ सबूत
उस पुराने इतिहास की
जिसकी न मैं गवाह ना तुम
रंग उतरे इन स्तंभों पर
कई कहानियाँ जागती
इधर उधर
रात के पहर
अनायास ही नज़र पड़ी जब उन पर
सोचने लगा मन
क्या कहना चाहती है
यह दीवारें सालों से खड़ी
जीती जागती ,
मूक दर्शक बनकर !
यूँ तो: हमने कभी सोचा नहीं
कि इस क़दर आप बसते हैं ज़हन में
पल भर की खामोशी भी ना अब
सहती इस मौसम में…
मौसम की इस अदला बदली में
कई रंग फिज़ा ने बदल दिए
कुछ पुराने पत्तों से झड़ गए
कुछ नए फूलों की खुश्बू से खिल गए…
देखे अब क्या है
इस मौसम की ख्वाइश
कोई
मुस्कुराहट या फिर कोई नई नुमाइश
जिंदगी के मौसम कितने अजीब
कभी मौसम-ए – हिज्र
कभी मौसम – ए- दीद !
) चित्त की सुनो रे मनवा
चित्त की सुनो
बाहर घोर अंध्काल
संभल कर चलो …
राह् कई है, अनजानी सी
देख् पग धरो, रे मनवा
चित्त की सुनो…
अज्ञान- के कारे बादल
गरजे बरसें बिन कोई मौसम
आपने मन की लौ को जगा कर
रखना तू हर पल
रे मनवा ,चित्त की सुनो…
ऐसे चित्त का चित्त रमाये ध्यान करे हरि का
भव्सागर पार हो जाए
कलयुग में
जगा कर रोम रोम और प्राण
रे मनवा ,
चित्त की सुनो हर बार
वो नीला आसमान ,
कुछ तेरा , कुछ मेरा
बाँट लिया आपस में
हमने अपने हिस्से का आसमान
कई रंग के ख्वाब यहाँ …
जीने के हजारों मक़ाम…
तेरी जेब में दुनिया को खरीदने का सारा सामान
मैंने भी जोड़े चंद सिक्के ,
अपनाने कुछ ऐश ओ आराम ..
पर वो शक़्स रहता जो
खुले आसमान के तले
ना जुटा पाया कुछ सामान
ना पहचाने दुनिया उसे ,
ना अपनाये अपनों में कहाँ
…
छीन गयी जिसकी
एक बिघा ज़मीन
ढोये वो बोझ, गैरों का यहाँ …
वो राह् पर भूकाबैठा …
तू चटकारे लगाये यहाँ …
क्या खूब जिया तू इनसान
कैसा यह फ़ासला …
इनसान …तू
इनसान से जुदा यहाँ !
उस अनपढ़ , के हाथों
ना दी किसी ने एक
कलम और किताब
छीन लिया बचपन
थमा दी लाठी
दूर् कर
भेद कर
अलग कर
इनसान को ,
इनसान से यहाँ…
बस
बाँट लिया आपस में हमने
अपने अपने हिस्से का आसमान !
बेवजह ही धड़कते है अरमान
बेवजह ही हम मुस्कुरा जाते
जब भी आता है होंठों पर नाम तेरा
जाने क्या सोच कर हम इतराते
तुम इस बात से अनजान
कोसों दूर् …
उस धुंद की चादर तले
अपने चाय के प्याले को निहारते
जिसके किनारे पर आज भी
है मौजूद
चंद निशान हमारे
आज तूफान आया था घर के बरामदे मेँ
उजड़ गया तिनकों का महल एक ही झोंके मेँ
उस चिड़िया की आवाज़ आज ना सुनायी दी
कई दिनो से
शायद
फिर से जूट गयी बेचारी सब सँवारने मेँ
बनते बिगड़ते हौंसले से बना फिर वो घोंसला
पर किसी को ना दिखा चिड़िया का वो टूटता पंख नीला
अब कैसे वो उड़े नील गगन में
जहाँ बसते थे उसके अरमान !
सबर का इम्तिहान उसने भी दिया
बचा लिया घरौंदा…
मगर कुर्बान ख़ुद को किया