खोज

चंद पल सुकून के खोजता रहा उम्र भर
कभी अपने पैरों के निशाँ पोंछ कर
कभी परिंदे सी उड़ान भर कर
दूर दराज़ जंगलों में
बड़ी बड़ी इमारतों के मंज़िलों पर
खोती गयी मंज़िल अपनी
इस पशोपेश में
भूल गया
झाँकना अपने ही भीतर
ज़िन्दगी के घुमते पहिये संग

Soumya

कैसे कहे चाँद से

कैसे कहे चाँद से

रात की चांदनी उससे  अलग नहीं

चाहे हो दिन या सितारों का मज़मा

रौशनी रूह की

जलती है अंदर ही

 

©Soumya

मेरे दिल को चिर कर

वह सोचते रहे

यूँ ही रात भर

पर हम ना

इससे बेखबर

लम्हा दर लम्हा गुज़रे

जो यह पहर

अलफ़ाज़ उनके जाए

मेरे दिल को चिर कर

सुन लो

जो सब कुछ कह दूँ
तो क्या मज़ा जीने में
समझ सको तो सुन लो
बिन कहे
उन बूंदों की सरगम
बहती है जो ख़ामोशी से
हलके से
गुनगुनाते हुए
बरसात के कुछ नग़मे
किस्से तेरी और मेरी कहानी के !

©Soumya

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हिज्र

अर्ज़ मेरी उसने ना सुनी,
होगा वो कुछ संगदिल सा,
एक हिज्र की मोहलत माँगी थी,
रूखसत हुई जब
उसके दर से यह ज़िंदगी।

-©Soumya

आओ चांदनी तुम्हे चुरा लूँ

“आओ चांदनी तुम्हे चुरा लूँ
उस चाँद से,
जो पढ़ता है कसीदे रात के अँधेरे में
अपनी मोहब्बत के
गुलाब की उन बंद पंखुरियों से
वह भीनी खुशबु को उड़ा लूँ
हवा के झोंके संग
लहरा कर तुम्हारे नीले दुपट्टे को
नदी तालाब सा बहा लूँ
संग पंछी उड़ जाऊं ऊँचे पर्वत पर
और फ़िज़ा में तुम्हे
घोल दूँ इत्र बन “

कहता है आज बरामदे
पर खड़ा उगता सूरज
भीनी भीनी रौशनी में
मुस्कुराता सूरज

एक ख्वाब है

एक ख्वाब है :
एक पल का
जब साथ हो आपका
किसी ठंड सी  ठिठुरती रात में
बातों का फलसफा लिए
कुछ हम कहे
कुछ आप कहे
चाँद जब दिखे आसमान में…
एक पल जिये
क्या कभी यह दिन आएगा
क्या  मन एक पल  जी पायेगा
वक्त के तरकश  से
क्या कभी यह तीर निकाल पायेगा?

कैफियत

अब किससे करे गिला, किस से करे शिकायत
गैरों ने माना अपना, अपनों ने की नफ़रत…
अब ना कोई उम्मीद, ना कोई मोहब्बत
जज़्बात ए इश्क में, हम बन गए, एक कैफियत

अपने अपने हिस्से का आसमान

वो नीला आसमान ,
कुछ तेरा , कुछ मेरा
बाँट लिया आपस में
हमने अपने हिस्से का आसमान
कई रंग के ख्वाब यहाँ …
जीने के हजारों मक़ाम…

तेरी जेब में दुनिया को खरीदने का सारा सामान
मैंने भी जोड़े चंद सिक्के ,
अपनाने कुछ ऐश ओ आराम ..

पर वो शक़्स रहता जो
खुले आसमान के तले
ना जुटा पाया कुछ सामान
ना पहचाने दुनिया उसे ,
ना अपनाये अपनों में कहाँ

छीन गयी जिसकी
एक बिघा ज़मीन
ढोये वो बोझ, गैरों का यहाँ …
वो राह् पर भूकाबैठा …
तू चटकारे लगाये यहाँ …

क्या खूब जिया तू इनसान
कैसा यह फ़ासला …
इनसान …तू
इनसान से जुदा यहाँ !

उस अनपढ़ , के हाथों
ना दी किसी ने एक
कलम और किताब
छीन लिया बचपन
थमा दी लाठी
दूर् कर
भेद कर
अलग कर
इनसान को ,
इनसान से यहाँ…
बस
बाँट लिया आपस में हमने
अपने अपने हिस्से का आसमान !

घोंसला

आज तूफान आया था घर के बरामदे मेँ
उजड़ गया तिनकों का महल एक ही झोंके मेँ
उस चिड़िया की आवाज़ आज ना सुनायी दी
कई दिनो से
शायद
फिर से जूट गयी बेचारी सब सँवारने मेँ

बनते बिगड़ते हौंसले से बना फिर वो घोंसला
पर किसी को ना दिखा चिड़िया का वो टूटता पंख नीला
अब कैसे वो उड़े नील गगन में
जहाँ बसते थे उसके अरमान !
सबर का इम्तिहान उसने भी दिया
बचा लिया घरौंदा…
मगर कुर्बान ख़ुद को किया